एक अरसे से बात नहीं कि हमने,
लेकिन आज दोपहर की नींद में,
तुम आये थे मुझसे मिलने।
सालों की दूरी एक पल में मिटाके
तुमने बड़ी आसानी से चुम लिया मुझे।
तुम्हारे होंठ जब मेरी पेशानी पे
बिछड़े दिनों की दास्ताँ लिख रहे थे,
मेरी आँखें बुझ गई थी।
अचानक आसमां ने
तुम्हारी आवाज़ में कहा
"इतनी बेरूखी क्या हुई
के बिछड़ते ही जा रहा हूँ,
रोते ही जा रहा हूँ..."
मैंने झटसे आँखें खोली और
सामने के आईने में देखा
तुम तब भी मेरे माथे को
चूम रहे थे और
आईने से देख रहे थे मुझे।
आँखें नम थी तुम्हारी।
हमारी आँखें आईने के ज़रिए
टकराते ही तुम ने नज़रें फेर ली
और दो बूंदें गिर गई
मेरी पलकों पे तुम्हारी आँखों से।
धीरे धीरे तुम्हे थामे मैं
तुमसे भी ज़्यादा रोने लगी।
रोते रोते सांस फूल गई और
हांपते हांपते नींद खुल गई।
ख्वाब था, ख्वाब ही थे।
ख्वाब का क्या भरोसा।
टूट ही जाता है आख़िर
रोज़ की नींद की तरह...
Monday, February 5, 2018
ख्वाब ही थे
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