Saturday, November 8, 2008

किसी और की नहीं अपनी ही याद में...


तुमने नज़रों से चुमा था यह बदन मेरा,
हथेलिओं से थामि  एक दुआ की तरह।

जी लेती हूँ उस पल को नींद में अगर,
जागने से टूट जाती हूँ ख्वाब की तरह।

सोच की भीड़ में है हर ख़याल अधूरा,
शब्द ढूंढता है राहें मुसाफिर की तरह।

बीते दिनों में मुलाक़ात होती है खुद से,
ज़िन्दगी ज़िंदा है मगर याद की तरह।

कोई और नहीं,मैं ही मुझको याद आई;
खुद ही से मिल गयी किरदार की तरह।

तू तू मैं मैं हो जाती है अक्स से अक्सर,
आइना भी देखता है अजनबी की तरह।

ढाई सदी..

मुझे पता है तुम्हारी बालकॉनी से समंदर दिखता है... तुम हर खुशी के मौके पे दौड़के आते हो वहां; कभी कभी रोने भी... कभी चाहनेवालों को हाथ ह...