Tuesday, July 25, 2017

नहीं चाहती...



किसी की होना नहीं चाहती ,
किसी को पाना नहीं चाहती.
फिर भी कोई मिल जाये तो
उसे खोना भी नहीं चाहती....
मृगतृष्णा के वहम में कुछ
दिल मुझ पर आ जाता है.
मैं उनके प्यास के सहारे
फिर से समंदर बन जाती हूँ.
पर इतनी गहराई नहीं चाहती
किसीकी परछाईं नहीं चाहती;
कब्र में समा लूंगी यह नदी;
क्यों की, बहना ही नहीं चाहती...
Kisi ki hona nahin chahti,
kisi ko pana nahin chahti.
Phir bhi koi mil jaye to use
khona bhi nahin chahti....
Mrigtrishna ke wahm mein
kuch dil mujh par aa jata hai.
Main unke pyaas ke sahare
phir se samandar ban jati hoon.
Magar itni gahrayi nahin chahti
Kisiki parchhayin nahin chahti;
kabr mein samaa loongi yeh nadi;
Kyun ki, bahna hi nahin chahti...

ढाई सदी..

मुझे पता है तुम्हारी बालकॉनी से समंदर दिखता है... तुम हर खुशी के मौके पे दौड़के आते हो वहां; कभी कभी रोने भी... कभी चाहनेवालों को हाथ ह...