दश्त-ए-प्यास में फिर जगी ख़्वाहिश क्यों है,
तेरी आँखों में मेरे ज़ख़्मों की नुमाइश क्यों है!
खंजर सी चुभती रही चीखें तेरी खामोशी की,
ज़िन्दगी में इश्क़ की ऐसी आज़माइश क्यों है!
आँखें कभी सूखती नहीं,दिल सुर्ख हो जाता है,
रेत सी फिसलती धड़कनों में ये बारिश क्यों है!
किसी टूटे दिल की बद्दुआ से शीशा है 'आईना'
फिर से पत्थर बनने की अब गुज़ारिश क्यों है...
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