मुझे पता है
तुम्हारी बालकॉनी से
समंदर दिखता है...
तुम हर खुशी के मौके पे
दौड़के आते हो वहां;
कभी कभी रोने भी...
कभी चाहनेवालों को हाथ हिलाने,
और कभी बस साँस लेने आ जाते हो
उस बालकॉनी पे, जहां से समंदर दिखता है।
तुम सोच रहे हो ये सब मुझे कैसे पता!
और अगर पता है तो उस वक़्त कहां थी मैं
जब तुम अकेले रो रहे होते थे!
सारे सवालों का जवाब ढूंढने तुम भी
मेरे पास आ सकते थे।
जिस समंदर से रोज़ बात करते हो,
एकबार बालकॉनी से उतर कर
उसकी लहरों को छू के पूछ सकते थे,
कहाँ हूँ मैं, क्यों हो तुम...अधूरे।
पिछले ढाई सदी से जहां खड़ी
मैं बह रही हूँ,
वहां से अब सिर्फ तुम्हारी बालकॉनी
दिखती है...
न तुम्हे तैरना आया न मुझे डूबोना...